अनकही
वो बढ़ा एक कदम, जैसे हवा की ओर मैं बदहवास दौड़ा, फकत दीयां की ओर मिन्नत ही ना की, अमीर-ए-शहर ने कभी अब नज़रें ताकती है, बस खुदा की ओर वहां चांद नम है, यहां तपती है जमीं मुसावात तो कर, ऐ अब्र धरा की ओर लहू टपकता है, दरख़्त के पत्तों से अब बहता था सुकूं जिनसे, पुरवा की ओर वो ठहरा ही कब, कि मैं ठहर जाता बस चलता रहा, आब-ए-रवाँ की ओर है खबर मुझे, मैं उनकी नज़र नहीं है खुशी मुझे, हैं वो रहनुमां की ओर वो पास बैठे मेरे, बड़े तबस्सुम से फिर चल दिए, अपने हमनवां की ओर ना मैं हबीब हूं, ना हूं रकीब उनका हैं वो मुतमइन कि, हूं मैं शमा की ओर झील सी आंखों से, मोती टपक पड़े ढक के पल्लू में मां, मुड़ी धुआं की ओर इक फूंक से दहका दिया, बुझती आग को जैसे रुद्रकाली हो खड़ी, खुद मां की ओर मां की हतपोइया, जो चूल्हे में पकी वो सोंहापन कहां, गैस तवा की ओर मेले की चहलकदमी, भीड़ का हो हल्ला बनने को खड़े, बाबा के बटुआ की ओर .................................................✍️ बदहवास = बौखलाकर अमीर-ए-शहर = शोहरत मंद लोग मुसावात = बराबरी, समानता, न्याय अब्र = बादल दरख़्त = पेड़ पुरवा = गांव आब-ए-रवां = बहता पानी तबस्स