हरगिज़ नहीं

खुशबू भरे खत तिरे जला दूं , हरगिज़ नहीं

जीते जी दिल में दफना दूं , हरगिज़ नहीं


तुममें इश्क की चिंगारी जले ना जले

मैं दहकती आग बुझा दूं , हरगिज़ नहीं


थपथपा कर सुलाया है दिल में यादों को

उन्हें इक झटके में जगा दूं , हरगिज़ नहीं


साहिल पर तामीर हुआ जो रेत का मकां

बेवफा लहरों में बहा दूं , हरगिज़ नहीं


पल-पल में जिया संग जिंदगी जो तेरे

उन हसीं लम्हों को भुला दूं , हरगिज़ नहीं


तेरे हिज्र से गम-ए-दिल आबाद रहे

तेरी वस्ल का मरहम लगा दूं , हरगिज़ नहीं


बेपनाह इश्क है तुमसे तुम दिल में रहो

नुमाइश में डीपी बना दूं , हरगिज़ नहीं


तिरे हंसी लव का मायल भी हूं मुरीद भी

ये राज दुनिया को बता दूं , हरगिज़ नहीं


इक अरसे बाद लौटी है अटारी पर जो

चहकती चिड़ियों को उड़ा दूं , हरगिज़ नहीं


यूं बांटते फिरते हैं दुनिया भर को मगर

तेरी खीर किसी को खिला दूं , हरगिज़ नहीं


तुझे पाने का खुमार बेशक है मुझ में

इस जुनूं में खुद को लुटा दूं , हरगिज़ नहीं


संजीव शाकिर

केनरा बैंक, तेलपा छपरा

sanjeevshaakir.blogspot.com

संजीव शाकिर


Comments

Post a Comment

SANJEEV SHAAKIR

Popular posts from this blog

मजदूर~गाथा

अनकही

'स्त्री'