अनकही



~अनकही~

तेरे चेहरे से ये जो नूर निकलते हैं

जैसे तीरगी-ए-शब में जुगनू जलते हैं


हम भी, एक अजीब अदाकार, बन बैठे हैं

हर शख़्स से अब, नए किरदार में मिलते हैं


लड़खड़ाते हैं मिरे ये पांव, हर पल, हर पग

पग-पग पर, लड़खड़ा के, ख़ुद ही सभलते हैं


तेरी ख़्वाहिश ही ना थी, हमें कभी भी, मगर

तेरे ख़्वाब में, हम यूं, करवटें बदलते हैं


बेशक थे जान, हम भी कभी, पत्थर के सनम 

ये तो आज है, की हम मोम सा पिघलते हैं


ताउम्र सच बोलने की कसमें खाते थे, जो

अब वही एक-दूसरे से झूठ बोलते हैं


संजीव शाकिर

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Comments

  1. बहुत दिनों बाद...लिखते रहा करिये , आपको पढ़ना अच्छा लगता है

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    1. हां जी जरूर, शुक्रिया

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  2. वाह वाह super 👍🏻🙏🏻

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  3. आएना तोर न दो जुल्फे सवर जाने के बाद

    फिर वही आएना काम आएगी रात गुजर जाने के बाद
    ।।।।।। रंजीत कुमार छपरा

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  4. ओ हो ओ बहुत बढीया
    गजब बाया किए

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    1. नमस्कार भाई जी, धन्यवाद

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  5. Kaafi time k baad kuch acha pdhne ko mila

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  6. आपकी कलम से निकले हुए हर वो शब्द एक गजल कि माफिक यू ही अपनी खुशबू बिखरती हैं हमेशा की तरह आज भी वही कशिश दिखता है इस गजब की शायरी में। हार्दिक शुभकामनाएं सर इस अद्धभुत कौशल उन्नयन के लिए।

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SANJEEV SHAAKIR

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