गिले-शिकवे
तुम्हें क्या लगता है ? मैं समझता नहीं हूं,
हां ये बात और है, तुम्हें परखता नहीं हूं।
जो भी करते हो तुम, जैसे भी, जिस तरह
मुस्कुराता रहता हूं तो क्या? तड़पता नहीं हूं।
बांधे बैठा हूं मुद्दतों से, समां अपने अंदर
जलता रहता हूं तो क्या? पिघलता नहीं हूं।
अकड़, गुरुर, जिद, जुनूँ, सारे ऐब हैं मुझमें।
रिश्ते सुलझे रहे, इसलिए उलझता नहीं हूं।
खूब वाकिफ हूं मैं, तेरे वस्ल से और हिज्र से भी।
अब कितना भी सितम कर, मैं बिखरता नहीं हूं।
थी दिल में, जो कशिश कभी, काश तुम मेरे होते।
अब कसक बनकर दफन है, पर मचलता नहीं हूं।
खैर छोड़ो, अब क्या कहूं? और भला क्यों?
घनी बदली सा छाया रहता हूं, पर बरसता नहीं हूं।
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संजीव शाकिर
कैनरा बैंक, छपरा
Bahut Sundar...
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DeleteBahut he acha
ReplyDelete🙏
ReplyDeleteSanjeev ji bahot khoob. Mannki baat cheen li aapne
ReplyDelete🙏
Deleteबहुत खूब🙏🙏🙏
ReplyDeleteधन्यवाद्
DeleteSuperb
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteTHANKS A LOT
DeleteWah👌👌
ReplyDeleteशुक्रिया
DeleteCha gaye guru
ReplyDeleteCha gaye guru
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