खुन्नस
उसने कह दिया अलविदा। न जाने, कैसी खुन्नस है।।
रहते है अब जुदा-जुदा। न जाने, कैसी खुन्नस है।।
वो आए ही ना नजर हमें। धुंध, छट जाने पर भी।।
मर्जी उनकी, उनकी अदा। न जाने, कैसी खुन्नस है।।
यूं तो नजरें चार करती। वो खुद, दरीचों से।।
जो हूं मुखातिब, तो हो खफा। न जाने, कैसी खुन्नस है।।
हां दीवाना हूं, मैं उनके। मुख्तलिफ आंदाज का।।
और वो फकत करते जफा। न जाने, कैसी खुन्नस है।।
भूल नजरों का था शायद। वो नियत समझ बैठे।।
कहा ना, इक भी दफा। न जाने, कैसी खुन्नस है।।
बुलाकर धड़कनों को, यूं हीं। उसने दिल दरवाजे पर।।
कर दिया सब रफा-दफा। न जाने, कैसी खुन्नस है।।
बदन के एक खरोच पर। जो हाथ सजदे में रहते थे।।
अब कैसा हाकिम, कैसा खुदा। न जाने, कैसी खुन्नस है।।
वहां चांद-तारे तोड़े। यहां जमीं जुगनू करने को।।
जलाकर बुझा दिया, दियां। न जाने, कैसी खुन्नस है।।
दिल के बेहद करीब थे। अक्सर ख्वाब में मिलते थे।।
वो गुमनाम, हैं गुमशुदा। न जाने, कैसी खुन्नस है।।
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संजीव शाकिर
केनरा बैंक, तेलपा छपरा।
Amazing
ReplyDelete🙏
Deleteवाह क्या जबरदस्त बात करी शाकीर साहेब. कुछ दोस्ती पर भी हो जाए
ReplyDeleteहां जरूर 🙏
DeleteWah kya baat hai sanjeev. Jabardast
ReplyDeleteशुक्रिया भाई जी
Deleteहमेशा की तरह आज भी कुछ खास पहचान बनाई आपकी कविता पाठ संदेश ने। बहुत ही उम्दा।
ReplyDeleteआपका हार्दिक शुक्रिया
DeleteJabaradast bhai.👌👌👌👌
ReplyDeleteधन्यवाद् भाई जी
DeleteSupar👌👌👌
ReplyDeleteBahut khoob...Diljale shayar shahab.
ReplyDelete😀
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