संस्कृति में निहित समाज की सभ्यता

-:पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण:-

प्रस्तावना एवं परिचय:-
तो क्या, ये महज एक इत्तेफाक है? 
जहां संपूर्ण जगत में अपने नैतिक मूल्यों एवं वसुधैव ही कुटुंबकम् जैसी सूक्तियां के समावेश से अपना वर्चस्व कायम कर आसमान की ऊंचाइयों को छूने वाली भारतीय सभ्यता का परचम आज पाश्चात्य सभ्यता की हल्की हवा के नाजुक थपेड़ों से भी लड़खड़ा जाता है।

सप्तर्षियों की ये तपोभूमि जिसे एक तरफ व्यास, पतंजलि, बृहस्पति, जैमिनी जैसे महर्षियों ने अपने मनीषा के ओज से इसे प्रकाशमय किया, वहीं दूसरी तरफ कबीर, मीरा, रैदास, ने भारतीय संस्कृति की सुंदरता को अपने दोहे में पिरो कर समाज को एक नया आईना दिया।

सरस्वती नदी के तट पर संकलित ऋग्वेद भाषा वैज्ञानिकी, दार्शनिक दृष्टिकोण, राजनीतिक चेतना, आर्थिक सद्भाव, एवं समाज में स्त्रियों के महत्व को दर्शाने वाला विश्व का प्राचीनतम (सर्वप्रथम) धर्म ग्रंथ है जो भारतीय संस्कृति का प्रतीक है।

दृष्टांत प्रमाण:-
आविष्कार जगत की जननी कहा जाने वाला भारत, शून्य और दशमलव से लेकर शल्य चिकित्सा, आयुर्वेद चिकित्सा, प्लास्टिक सर्जरी, फाइबर ऑप्टिक्स, ज्यामिति, पाई का सिद्धांत और भाषा के व्याकरण तक एवं न जाने कितने अनगिनत अद्भुत खोजों से संपूर्ण विश्व को ना केवल अचंभित किया अपितु विश्व गुरु बनकर सदैव मानव जाति का मानव हित में मार्गदर्शन किया।

सामाजिक, स्वाभाविक या अभ्यासलभ्य कारण:-
फिर बदलते समय चक्र के साथ भारतीय सभ्यता का चीरहरण क्यो?

कहीं ये पाश्चात्य सभ्यता का सम्मोहन तो नहीं?

जिसने भारतीय समाज को उस अर्ध-चेतनावस्था में लाकर खड़ा कर दिया है जो समाधि या स्वप्ननावस्था से लगभग मिलती-जुलती है।

भारत जैसा देश जो एक लंबे समय तक पश्चिमी राष्ट्र का उपनिवेश रहा है उसके लिए विदेशी लोगों के आचरण और उनके तौर तरीकों को अपनाना कोई नई बात नहीं है।
परंतु यह क्या? 
संयुक्त परिवार से एकल परिवार बनने के क्रम में क्या हमने अपने पूर्वजों की परंपरागत विरासतों से लिपटी समृद्ध भावनाओं को आहत नहीं किया? 
क्या एकल परिवार की धारणा समाज में मानव के आर्थिक प्रगति के लिए थी या फिर मानवता के पतन की?

जहां एक तरफ पश्चिमी देश हमारी भारतीय संस्कृति से प्रभावित होकर वृंदावन की गलियों में विचरण करते हुए हरे रामा हरे कृष्णा के राग से मंत्रमुग्ध हो रहे हैं, बनारस के अस्सी घाट की गंगा आरती को मोक्ष का मार्ग मानकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में बिल्कुल भी नहीं हिचकिचाते, इतना ही नहीं, महाभारत की रणभूमि कुरुक्षेत्र की मिट्टी से वह अपना राज तिलक कर हरिद्वार स्थित पतंजलि विद्यापीठ में अपने रोग के निवारण हेतु पश्चिमी देशों से आए श्रद्धालु भारत की संस्कृति और सभ्यता का महिमामंडन करते बिल्कुल भी नहीं थकते।

वहीं दूसरी तरफ विश्व का सबसे युवा देश भारत गोवा की गर्म रेत की चादरों में लिपटे, मदिरा सेवन से नशे में धुत, युवाओं को देखकर निश्चित ही चिंतित होता होगा और इस विचार से बिल्कुल भी परे नहीं होगा, कि, क्या यह पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव है या प्रकोप?

अच्छा चलिए, कोई बात नहीं, अगर मैं खुद को उपर्युक्त विवेचित तथ्यों के खिलाफ सहमत कर भी लूं, तो एक सवाल जो मेरे आंतरिक हृदय को झकझोर देता है उसके प्रत्युत्तर में क्या कहूं?

जिस अंग्रेजी हुकूमत ने ईस्ट इंडिया कंपनी का चोला पहनकर 1707 से 1857 तक भारत को आर्थिक रूप से लहूलुहान किया और फिर 1857 की क्रांति के फलस्वरूप भारतीय लोग, अंग्रेजों के राजनीतिक और धार्मिक महत्वाकांक्षाओं का शिकार हुए। इसके साथ ही साथ अंग्रेजों ने भारतीय संस्कृति संरक्षण संस्थाओं का विघटन कर धार्मिक द्वेष की ऐसी बीज बोई जो आगे चलकर जाति और धर्म के आधार पर भारतीय समाज में भेदभाव के रूप में पनपी।

किसी समाज को गुलाम बनाना आसान है परंतु निरंतर गुलाम बनाए रखना लगभग नामुमकिन। जरा सोचिए, अगर किसी भी समाज के संस्कृति पर अपने संस्कृति की छाप छोड़ दी जाए या यूं कह लीजिए समाज की आत्मा कहे जाने वाले उस समाज की संस्कृति को ही गुलाम बना लिया जाए तो वह समाज जो संस्कृति का द्योतक है हमेशा-हमेशा के लिए गुलामी की बेड़ियों में जकड़ उठेगा।

और इसी दुर्विचार के साथ अंग्रेजी हुकूमत ने भारत की संस्कृति पर सीधा प्रहार किया। भारतीय समाज को पीढ़ी दर पीढ़ी भारत की संस्कृति से परिचय कराने वाले वैदिक ग्रंथ, वेद मंत्र, भारतीय इतिहास, जिनकी भाषा, विश्व में समस्त भाषाओं की जननी कही जाने वाली, संस्कृत हुआ करती थी उस पर संहार कर उसे अंग्रेजी भाषा के ताबूत में दफन कर दिया।

हिंदी है हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा का नारा लगाने वाले भारतीयों की राजभाषा हिंदी आज भी अपने ही देश में व्याप्त हजारों भाषाओं के समंदर में हिचकोले खा रही है।

और अब आलम यह है कि, भारतीय युवा जिन्हें गुलामी की बेड़ियों के जकड़ से पैदा होने वाले निशा का भी इल्म नहीं, आज आजादी की खुली हवा में सांस लेते हुए वो शहीद दिवस, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस को महज एक छुट्टी के रूप में जानते हैं। हां ये बात और है कि, वैलेंटाइन डे और फ्रेंडशिप डे का इंतजार वो बड़ी बेसब्री से साल भर करते हैं।

उपसंहार:-
तो क्या यह पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण है या फिर अनुसरण?

नहीं, नहीं, बिल्कुल नहीं, किसी भी संस्कृति का वैचारिक अनुकरण या व्यावहारिक अनुपालन किसी भी परिस्थिति में किसी और संस्कृति को तनिक भी हानि नहीं पहुंचा सकती, और शायद, यही सुंदरता या खूबी हर संस्कृति की है।
क्योंकि विश्व के बागान में समाज के पौधों में लगे सभ्यता के फूलों से सदैव सुंदर संस्कृति की सुगंध ही आती है जो पूरे मानवीय फिजा को मकबूल महक से परिचित कराती है।

मानवीय संवेदनाओं से सुसज्जित, त्याग एवं बलिदान से अर्जित, भारत की आत्मीयता में अंतर्निहित, भारतीयों की अस्मिता को सुशोभित करने वाली, युग युगांतर से, उतर में बृहत पर्वत श्रृंखलाओं का मुकुट धारण कर पूर्व में बंगाल की खाड़ी से खेलती हुई दक्षिण के हिंद महासागर में अपने पैरों को गिला कर पश्चिम के अरब सागर में स्नान करने वाली, भारतीय सभ्यता, निश्चित ही वैदिक परंपरा की साड़ी में लिपटी, बहुरंगी विविधता की चुन्नी हवा में लहराते हुए अनेक भाषा संस्कृति एवं जीवन शैली के मोतियों को एकता रूपी मंगलसूत्र में धारण कर अपने ललाट पर भारत के गौरव की बिंदी लगाए भारतीय संस्कृति के मंडप में बैठी किसी नई-नवेली दुल्हन से कम नहीं लगती।
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 संजीव_शाकिर
 केनरा बैंक, छपरा तेलपा

संजीव

Comments

  1. बहोत बढिया संजीव जी. बहोत खूब

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SANJEEV SHAAKIR

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