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'"राब्ता'"

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अच्छा खासा तो हूं,फिर क्यों,लोग बीमार समझते हैं। जो कुछ नहीं समझते,खुद को रिश्तेदार समझते हैं।। किसी और नाम पर, हमनें अपनी उधारी मांग ली। और,वो आज भी हमें, अपना कर्जदार समझते हैं।। मैं मिलूं,कितने भी तपाक से,मगर यह कामिल कहां। वो,मेरे मुकद्दस इश्क को, मेरा व्यापार समझते हैं।। मैं जख्म कुरेदता रहता हूं, खुद के नाखूनों से ही। उन्हें,ये इल्म ही कहां,जो,मुझे लंबरदार समझते हैं।। उनकी बातें न जाने क्यों,ज़ेहन में जिंदा रहती हैं। कब्र तक ना छोड़ेंगें,मुझे,जो हिस्सेदार समझते हैं।। तमाम शब"सो"ना सके,बाबा,ख़ासि़यों की कराह से। बैठा कर चौखट पर,"बेटे" चौकीदार समझते  हैं।। चलो अब दफन करते हैं,गिले-शिकवे,हैं जो दरमियां। यह बात,सब नहीं समझते,बस जिम्मेदार समझते हैं।। साहिल ने लहरों से,बस यूं ही नहीं,गुफ़्तगू कर ली। जो इश्क में गोते खाते हैं,वही मँझधार समझते हैं ।। सुनो,ये खबर रहे कि,तुम भी मेरे दिल के सनम हो। पत्तों के झड़जाने का गम,दरख़्त,शाख़दार समझते हैं।। गुरबत की बदहाली से,तुझे अब,जीतना है"शाकिर"। जंग लड़े कैसे,लकीरों से,बस'दो-चार'समझते हैं।। ................

नोक-झोंक

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👦    चलो डूब मरते हैं, इश्क के समंदर में।                                           👧    तुम मरो ना, मर जाऊंगी तेरे अंदर मैं।। 👦   ये तो कोई बात नहीं,         जो वादा किया वो साथ नहीं।         तुम ना कहती थी तुम बड़े सच्चे हो,         हां चेहरे से थोड़ा कम पर दिल के अच्छे हो।।         सारी बातें भूल गई,          कमाल है।         जिसे समझता था मैं जवाब         वह खुद, इक सवाल है।। 👧   हे, रुको रुको !         ज्यादा नहीं, हां।।         तुम्हें कुछ याद भी रहता है,         मैंने ऐसा कब बोला है।         आंखों में रहने की जगह दी है,         अभी दिल नहीं खोला है।।         हंस के दो बातें क्या कर ली,         इश्क समझ बैठे।         यही मसला तुम सारे लड़कों का है,         लड़की देखी नहीं, चालू हो गए।         आगाज-ए-इश्क में समुंदर के रेत जैसे हैं         अंजाम-ए-मोहब्बत में,         अवैध खनन के बालू हो गए।। 👦    ओ-ह-हो, तो तुम्हें याद नहीं।          खैर छोड़ो, कोई बात नहीं।।          पिज्जा हट तो याद होगा,          जहां हम-तुम बैठा करते थे।          घंटों एक-दूजे संग "वक्त"      

तुम्हें अच्छा लगेगा !

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चलो अब इश्क करते हैं, तुम्हें अच्छा लगेगा बेवजह तुम पर मरते हैं, तुम्हें अच्छा लगेगा तेरी तारीफ के कसीदे, मैं  पढूं  ना  पढूं सुकूँ से कलाम पढ़ते हैं, तुम्हें अच्छा लगेगा जज़्बात ख़यालात सवालात, अब रहने भी दें बिन बयां सब समझते हैं, तुम्हें अच्छा लगेगा वो रुमाल जो अपने सर की, तकिया थी कभी उसकी खुशबू महकते हैं, तुम्हें  अच्छा  लगेगा मयस्सर हो जहां से जो, उतना ही सिर्फ क्यों? अब हक के लिए लड़ते हैं, तुम्हें अच्छा लगेगा मैं तुम या फिर हम, जीत लेंगे इस दुनिया को क्यों ना साथ में निकलते हैं, तुम्हें अच्छा लगेगा तीरगी-ए-शब में खूब चमके, इश्क के जुगनू शाम-ओ-सहर चमकते हैं, तुम्हें अच्छा लगेगा हाल-ए-दिल दफन है दिल में, ना जाने कब से आंखों से बयां करते हैं,  तुम्हें  अच्छा  लगेगा गली के नुक्कड़ से बहुत हुई, हुस्न की टकटकी "आ" चौराहे पर मिलते हैं, तुम्हें अच्छा लगेगा तुम हो इंतजार में जिसके, वो शाकिर तो नहीं तुम रुको हम चलते हैं,  तुम्हें  अच्छा  लगेगा ...........................✍️ INSTAGRAM- http://www.instagram.com/sanjeev_shaakir FACEBOOK-  http://www.facebook.com/sanjeevshaakir   ..

अनकही

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वो बढ़ा एक कदम, जैसे हवा की ओर मैं बदहवास दौड़ा, फकत दीयां की ओर मिन्नत ही ना की, अमीर-ए-शहर ने कभी अब नज़रें ताकती है, बस खुदा की ओर वहां चांद नम है, यहां तपती है जमीं मुसावात तो कर, ऐ अब्र धरा की ओर लहू टपकता है, दरख़्त के पत्तों से अब बहता था सुकूं जिनसे, पुरवा की ओर वो ठहरा ही कब, कि मैं ठहर जाता बस चलता रहा, आब-ए-रवाँ की ओर है खबर मुझे, मैं उनकी नज़र नहीं है खुशी मुझे, हैं वो रहनुमां की ओर वो पास बैठे मेरे,  बड़े तबस्सुम से फिर चल दिए, अपने हमनवां की ओर ना मैं हबीब हूं, ना हूं रकीब उनका हैं वो मुतमइन कि, हूं मैं शमा की ओर झील सी आंखों से, मोती टपक पड़े ढक के पल्लू में मां, मुड़ी धुआं की ओर इक फूंक से दहका दिया, बुझती आग को जैसे रुद्रकाली हो खड़ी, खुद मां की ओर मां की हतपोइया, जो चूल्हे में पकी वो सोंहापन कहां, गैस तवा की ओर मेले की चहलकदमी, भीड़ का हो हल्ला बनने को खड़े, बाबा के बटुआ की ओर .................................................✍️ बदहवास = बौखलाकर अमीर-ए-शहर = शोहरत मंद लोग मुसावात = बराबरी, समानता, न्याय अब्र = बादल दरख़्त = पेड़ पुरवा = गांव आब-ए-रवां = बहता पानी तबस्स

हरगिज़ नहीं

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खुशबू भरे खत तिरे जला दूं , हरगिज़ नहीं जीते जी दिल में दफना दूं , हरगिज़ नहीं तुममें इश्क की चिंगारी जले ना जले मैं दहकती आग बुझा दूं , हरगिज़ नहीं थपथपा कर सुलाया है दिल में यादों को उन्हें इक झटके में जगा दूं , हरगिज़ नहीं साहिल पर तामीर हुआ जो रेत का मकां बेवफा लहरों में बहा दूं , हरगिज़ नहीं पल-पल में जिया संग जिंदगी जो तेरे उन हसीं लम्हों को भुला दूं , हरगिज़ नहीं तेरे हिज्र से गम-ए-दिल आबाद रहे तेरी वस्ल का मरहम लगा दूं , हरगिज़ नहीं बेपनाह इश्क है तुमसे तुम दिल में रहो नुमाइश में डीपी बना दूं , हरगिज़ नहीं तिरे हंसी लव का मायल भी हूं मुरीद भी ये राज दुनिया को बता दूं , हरगिज़ नहीं इक अरसे बाद लौटी है अटारी पर जो चहकती चिड़ियों को उड़ा दूं , हरगिज़ नहीं यूं बांटते फिरते हैं दुनिया भर को मगर तेरी खीर किसी को खिला दूं , हरगिज़ नहीं तुझे पाने का खुमार बेशक है मुझ में इस जुनूं में खुद को लुटा दूं , हरगिज़ नहीं संजीव शाकिर केनरा बैंक, तेलपा छपरा sanjeevshaakir.blogspot.com संजीव शाकिर

खुन्नस

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उसने कह दिया अलविदा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। रहते है अब जुदा-जुदा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। वो आए ही ना नजर हमें। धुंध, छट जाने पर भी।। मर्जी उनकी, उनकी अदा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। यूं तो नजरें चार करती। वो खुद, दरीचों से।। जो हूं मुखातिब, तो हो खफा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। हां दीवाना हूं, मैं उनके। मुख्तलिफ आंदाज का।। और वो फकत करते जफा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। भूल नजरों का था शायद। वो नियत समझ बैठे।। कहा ना, इक भी दफा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। बुलाकर धड़कनों को, यूं हीं। उसने दिल दरवाजे पर।। कर दिया सब रफा-दफा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। बदन के एक खरोच पर। जो हाथ सजदे में रहते थे।। अब कैसा हाकिम, कैसा खुदा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। वहां चांद-तारे तोड़े। यहां जमीं जुगनू करने को।। जलाकर बुझा दिया, दियां। न जाने, कैसी खुन्नस है।। दिल के बेहद करीब थे। अक्सर ख्वाब में मिलते थे।। वो गुमनाम, हैं गुमशुदा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। .........................✍️ ...............................✍️ संजीव शाकिर केनरा बैंक, तेलपा छपरा। संजीव शाकिर

हमनफस~हमनवा

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तुझसे बिछड़ कर, तेरे और पास, आ गया हूं मैं। बन भंवरा कुमुदिनी बिच, जैसे समा गया हूं मैं। तमतमा रहा है बदन, अहल-ए-तपिश की रूह है। मर्ज-ए-बुखार नहीं, गर्म होंठों से चूमा गया हूं मैं। बेशक तू दूर जा, मुझसे और मेरी यादों से भी। आईना देख, तेरे तबस्सुम में भी छा गया हूं मैं। तुम मिलोगी, कुछ कहोगी इतनी तो मुरव्वत होगी। मिलके गई जिस खामोशी से मुझे, बौरा गया हूं मैं। क्या? तुम मुझे याद करती हो। अब भी, सच में! बस भी करो, ख्वाबों में भी तेरे दफना गया हूं मैं। कल मेरी, आज उसकी, और कल का पता नहीं। हमनफस, हमदम, हमनवा देखो पगला गया हूं मैं। sanjeevshaakir.bolgspot.com ............✍️✍️✍️ संजीव शाकिर केनरा बैंक, छपरा 🙏🙏🙏🙏🙏 संजीव शाकिर

मुखौटा

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नकाब ने क्या खूब, हमारी हिफाजत की। और हमने, फिर भी उसकी तिजारत की। कभी चेहरा छुपाते, तो कभी हाव-भाव। रूबरू हुई तो बस, नजर-ए-इनायत की। मुस्कुराते हम बहुत, अपनी आंखों से ही। वो मिले भी तो, आंखों से शिकायत की। करें तो भला क्या? लहराते गेसुओ का। जिधर उड़े, बस कयामत ही कयामत की। आओ बैठो, और सुनाओ क्या हाल है? बस भी करो अब, बू आती है अदावत की। दिल लुटा, बर्बाद हुए, और न जाने क्या-क्या? तुम हिज्र में हँसे, चलो इतनी तो रियायत की। ........................✍️✍️✍️ संजीव शाकिर केनरा बैंक,छपरा संजीव शाकिर

गिले-शिकवे

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तुम्हें क्या लगता है ? मैं समझता नहीं हूं, हां ये बात और है, तुम्हें परखता नहीं हूं। जो भी करते हो तुम, जैसे भी, जिस तरह मुस्कुराता रहता हूं तो क्या? तड़पता नहीं हूं। बांधे बैठा हूं मुद्दतों से, समां अपने अंदर जलता रहता हूं तो क्या? पिघलता नहीं हूं। अकड़, गुरुर, जिद, जुनूँ, सारे ऐब हैं मुझमें। रिश्ते सुलझे रहे, इसलिए उलझता नहीं हूं। खूब वाकिफ हूं मैं, तेरे वस्ल से और हिज्र से भी। अब कितना भी सितम कर, मैं बिखरता नहीं हूं। थी दिल में, जो कशिश कभी, काश तुम मेरे होते। अब कसक बनकर दफन है, पर मचलता नहीं हूं। खैर छोड़ो, अब क्या कहूं? और भला क्यों? घनी बदली सा छाया रहता हूं, पर बरसता नहीं हूं। .. ..................... .........................✍️ संजीव शाकिर  कैनरा बैंक, छपरा

मजदूर~गाथा

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        दू   "मज - र"गाथा     बू खुद के लहू से सींच कर  जो सड़के बनाई थी हमने। अपने घरों से खींच कर ला खड़ा किया वहीं तुमने। रंग-रूप चकाचौंध शहर का हाथी दांत के जैसा है। जहां जिंदे को रोटी नसीब,ना और लाश हुए,तो पैसा है। लाखों लोग जो बेघर हैं, राहों में हैं भटक रहे। शासन और प्रशासन की  आंखों में हैं खटक रहे। राष्ट्र का गौरव इनसे ही है, रहेगा, इन्हीं के कर्मों से। नेता के राज और उनकी नीति ने सौगात दिया इन्हें जुर्मो से। रहे स्मरण, इन रणबांकुरे ने कोरोना को भी मात दिया। भूख प्यास और घोर गरीबी ने हाय! चौतरफा कुघात किया। अब ना कोई उम्मीद है, अब ना किसी से आस है। तुम जलाओ दीपक घरों में यहां जलती हमारी सांस है। पैर के छालों ने जो नापा  वह दूरी नहीं मजबूरी है। गांव की गलियां गूंज रही हैं  तेरा जिंदा रहना जरूरी है। दाएं कंधे पर बेटा बैठा बायें पर बेटी का भार है। अब हर पग, मां खून थूकती बीवी को तेज बुखार है। इस चिलमिलाती धूप को  मेरा नंगा बदन ही काफी है। सैकड़ों योजन चलकर भी,  मेरे बच्चे में जान बाकी है। ये मर गया तो, तड़पूंगा मैं क्योंकि मेरा तो कुछ जाता है। हिंदुस्तान समूचा झुलस रहा

दास्तान-ए-दिल

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खो गए क्या? जैसे बारिश की बूंद समंदर में खोती है। या फिर सो गए क्या? जैसे नन्ही बच्ची मां की गोदी में सोती है।। खैर छोड़ो, अब इतनी भी फिक्र, क्या करना। जो लौटे ही ना, उसका ज्यादा जिक्र, क्या करना।। तेरी बहकी-बहकी बातें  अब भी याद आती हैं। वो भीनी-भीनी सी मुलाकातें  मुझे बहुत तड़पाती है।। वो तेरा पास बैठकर  कोहनी मारना। जोर की लगने पर  प्यार से पुचकारना।। चार कदम चलते ही, तेरा ऑटो को हाथ देना। भैया ज्यादा दूर नहीं, बस पीवीआर पर रोक लेना।। ऑटो से उतरते ही  तेरा पानी पुरी खाना। ये क्या भैया, सादा-सादा  जरा तीखा और मिलाना।। एक कड़क गोलगप्पा, मेरे होठों के पास लाना। मेरे "अ-आ" करते ही झट से गप कर जाना।। हां सब याद है मुझे, पर क्या तुम्हें भी? बैठती थी मेरी गोद में, और देखती थी उसे भी।। आखिर क्या मिला तुझे, मुझे बर्बाद करके। हां मैं तड़पा बहुत मगर, तुझे याद करके।। और तेरा क्या हुआ? अरे ओ जानेमन। क्या हुई तू आबाद?  खुद को आजाद करके।। जो मेरा हो न सका, वो तेरा क्या होगा? तू भी तड़पेगा एक दिन, तब यह फैसला होगा।। हां, ये मैंने ही कहा था उससे  तू पास जिसके भी गई थी। वो बंदा रिस्तों का ब

संस्कृति में निहित समाज की सभ्यता

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-:पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण:- प्रस्तावना एवं परिचय:- तो क्या, ये महज एक इत्तेफाक है?  जहां संपूर्ण जगत में अपने नैतिक मूल्यों एवं वसुधैव ही कुटुंबकम् जैसी सूक्तियां के समावेश से अपना वर्चस्व कायम कर आसमान की ऊंचाइयों को छूने वाली भारतीय सभ्यता का परचम आज पाश्चात्य सभ्यता की हल्की हवा के नाजुक थपेड़ों से भी लड़खड़ा जाता है। सप्तर्षियों की ये तपोभूमि जिसे एक तरफ व्यास, पतंजलि, बृहस्पति, जैमिनी जैसे महर्षियों ने अपने मनीषा के ओज से इसे प्रकाशमय किया, वहीं दूसरी तरफ कबीर, मीरा, रैदास, ने भारतीय संस्कृति की सुंदरता को अपने दोहे में पिरो कर समाज को एक नया आईना दिया। सरस्वती नदी के तट पर संकलित ऋग्वेद भाषा वैज्ञानिकी, दार्शनिक दृष्टिकोण, राजनीतिक चेतना, आर्थिक सद्भाव, एवं समाज में स्त्रियों के महत्व को दर्शाने वाला विश्व का प्राचीनतम (सर्वप्रथम) धर्म ग्रंथ है जो भारतीय संस्कृति का प्रतीक है। दृष्टांत प्रमाण:- आविष्कार जगत की जननी कहा जाने वाला भारत, शून्य और दशमलव से लेकर शल्य चिकित्सा, आयुर्वेद चिकित्सा, प्लास्टिक सर्जरी, फाइबर ऑप्टिक्स, ज्यामिति, पाई का सिद्धांत