'"राब्ता'"

अच्छा खासा तो हूं,फिर क्यों,लोग बीमार समझते हैं।

जो कुछ नहीं समझते,खुद को रिश्तेदार समझते हैं।।


किसी और नाम पर, हमनें अपनी उधारी मांग ली।

और,वो आज भी हमें, अपना कर्जदार समझते हैं।।


मैं मिलूं,कितने भी तपाक से,मगर यह कामिल कहां।

वो,मेरे मुकद्दस इश्क को, मेरा व्यापार समझते हैं।।


मैं जख्म कुरेदता रहता हूं, खुद के नाखूनों से ही।

उन्हें,ये इल्म ही कहां,जो,मुझे लंबरदार समझते हैं।।


उनकी बातें न जाने क्यों,ज़ेहन में जिंदा रहती हैं।

कब्र तक ना छोड़ेंगें,मुझे,जो हिस्सेदार समझते हैं।।


तमाम शब"सो"ना सके,बाबा,ख़ासि़यों की कराह से।

बैठा कर चौखट पर,"बेटे" चौकीदार समझते  हैं।।


चलो अब दफन करते हैं,गिले-शिकवे,हैं जो दरमियां।

यह बात,सब नहीं समझते,बस जिम्मेदार समझते हैं।।


साहिल ने लहरों से,बस यूं ही नहीं,गुफ़्तगू कर ली।

जो इश्क में गोते खाते हैं,वही मँझधार समझते हैं।।


सुनो,ये खबर रहे कि,तुम भी मेरे दिल के सनम हो।

पत्तों के झड़जाने का गम,दरख़्त,शाख़दार समझते हैं।।


गुरबत की बदहाली से,तुझे अब,जीतना है"शाकिर"।

जंग लड़े कैसे,लकीरों से,बस'दो-चार'समझते हैं।।


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संजीव शाकिर

केनरा बैंक, तेलपा छपरा

संजीव शाकिर


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SANJEEV SHAAKIR

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