अंदाज़-ए-बयाँ
अंदाज़-ए-बयाँ |
सब कुछ लगा कर दाँव पर, हम ऐसे चाल हार गए
अब क्या बरछी क्या कटार, वो जुबां से ही मार गए
जीतने की ख़्वाहिश तो थी ही नहीं, कभी भी उनसे
रंजिशें ग़ैरों से की और अपने सारे यार गए
इक फर्क है मेरे और उनके अंदाज़-ए-बयाँ में
वो अब भी इक राज हैं, मेरे सारे असरार गए
तूफानों ने लहरों से मिल कर ऐसी साज़िश रची
कश्ती तिरे ख़ैर में ना जाने कितने पतवार गए
अमूमन, तमाम शब मैं इसी क़ैफ़ियत में रहता हूं
बेज़ार हो क्यों? मिरे किस बात पर इतना ख़ार गए
तुम्हारा यूं हौले से रुख़सत हो जाना जायज़ है
तुम्हें ख़बर भी है, यहां मेरे कितने इतवार गए
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संजीव शाकिर
केनरा बैंक, छपरा
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Kya khoob likha hai appne 👌👌👌😀😀💕💕
ReplyDeleteशुक्रिया
Delete👌👌👌
ReplyDelete🙏
Deleteजो लोग दर्द को समझते हैं वो कभी भी किसी के दर्द की वजह नही बनते,।
ReplyDeleteयह अपना है भाई🙏
😊
DeleteSuper 👌👌👌👌👌
ReplyDelete🙏
DeleteOutstanding 👏👏👏
ReplyDelete🙏
Deleteवाह क्या बात है एंटीबायोटिक कैफियत भरा है सम्पूर्ण पंक्ति में इस कविता का।बधाई सर।
ReplyDelete😀Shukriya🤭
Deleteबहुत ही बढ़िया हैं सर कितने दर्द हैं आपके दिल में चंद लफ्जो से ही बताया आपने.
ReplyDelete😊
DeleteBht mst 👌👌👌👌👌
ReplyDelete🤗
DeleteNice...👍🏻👍🏻👍🏻
ReplyDeleteVery meaningful poem👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻
🙏
Delete👌
ReplyDelete🙏
DeletePanktiyon me aapne apni vyatha gahrai se likhi hai.
ReplyDelete🙏
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