मरासिम


संजीव शाकिर




न जाने कैसा है दर्द उसे, न जाने कैसी कराह है

ख़ामोश बेशक है वो मगर, ये कारी रात गवाह है


तेरे बदन से नहीं, तेरी रूह से है, ताल्लुक़ मेरा

हाँ,तड़पता मैं भी हूं,तेरी जब भी निकलती आह है


बेचैन हो उठता है दिल,तू जब भी मुब्तिला हो कहीं

सुकूँ मिलता है ग़ालिबन,मिलती जब भी तुझे पनाह है


महफ़ूज़ रहें तेरे अपने,मुक़म्मल हो हर ख़्वाब तेरा

बस इतनी सी इल्तिजा है मेरी,इतनी ही परवाह है


सुनो,अब छोड़ो ये सब,आओ उठो,चलो घर चलते हैं 

दीया चौखट पर रखे,"मां" बस तकती हमारी राह है

Comments

  1. Bahut sundar..... Sir ji mubtila ka matlab nahi samjha

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  2. अति सुन्दर सरजी

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  3. दिल को सुकन और मन को शांति प्रदान देती है।....

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  4. Nice bro... Keep it up 👍👍👍

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  5. Replies
    1. आय हाय, शुक्रिया दोस्त

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  6. अति सुन्दर शाकिर भाई 👍👍👍👍👌👌👌👌

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  7. अति सुंदर कविता अब तक मे आपके द्वारा रचित कविताओं में।हार्दिक बधाई सर।

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    1. आपकी तारीफ और स्नेह के लिए शुक्रिया 🙏

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  8. महफूज़ रहें तेरे अपने ............। tere ke badle me teren, mere hisab se, baki to aap humse jeyada jantae hai, Aap ke ashar me dard hai!

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SANJEEV SHAAKIR

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