मरासिम
संजीव शाकिर |
न जाने कैसा है दर्द उसे, न जाने कैसी कराह है
ख़ामोश बेशक है वो मगर, ये कारी रात गवाह है
तेरे बदन से नहीं, तेरी रूह से है, ताल्लुक़ मेरा
हाँ,तड़पता मैं भी हूं,तेरी जब भी निकलती आह है
बेचैन हो उठता है दिल,तू जब भी मुब्तिला हो कहीं
सुकूँ मिलता है ग़ालिबन,मिलती जब भी तुझे पनाह है
महफ़ूज़ रहें तेरे अपने,मुक़म्मल हो हर ख़्वाब तेरा
बस इतनी सी इल्तिजा है मेरी,इतनी ही परवाह है
सुनो,अब छोड़ो ये सब,आओ उठो,चलो घर चलते हैं
दीया चौखट पर रखे,"मां" बस तकती हमारी राह है
बहुत खूब
ReplyDelete🙏
DeleteVery nice
ReplyDeleteShukriya
DeleteExcellent sir
ReplyDelete😊
DeleteBahut sundar..... Sir ji mubtila ka matlab nahi samjha
ReplyDeleteमुसीबत में
Deleteअति सुन्दर सरजी
ReplyDeleteShukriya Bhai G
Deleteदिल को सुकन और मन को शांति प्रदान देती है।....
ReplyDeleteNice bro... Keep it up 👍👍👍
ReplyDeleteSure....Bhai G.....but ab thoda muskil hai....
DeleteATI Sundar bhaiya ji
DeleteVery nice bhaiya jii🙏
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteशुक्रिया भाई जी 🙏
DeleteWell done my boy (bhai jee)
ReplyDeleteआय हाय, शुक्रिया दोस्त
DeleteBeautiful lines.. 😍
ReplyDelete🙏
Deleteअति सुन्दर शाकिर भाई 👍👍👍👍👌👌👌👌
ReplyDeleteSukriya Bhai g
Deleteअति सुंदर कविता अब तक मे आपके द्वारा रचित कविताओं में।हार्दिक बधाई सर।
ReplyDeleteआपकी तारीफ और स्नेह के लिए शुक्रिया 🙏
Deleteमहफूज़ रहें तेरे अपने ............। tere ke badle me teren, mere hisab se, baki to aap humse jeyada jantae hai, Aap ke ashar me dard hai!
ReplyDelete🙏 Noted, शुक्रिया
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