रक़ीब
उससे मिलने को तो, वो, उसके घर जाती है
मैं, गली से भी जो गुज़रू, तो मुक़र जाती है
कुछ तो बेहतर होगा, यक़ीनन उसमें, मुझसे
मैं तुझ पर मरता हूँ, तू, उसपे मर जाती है
ख़्वाब में भी कभी उसे, यूं, बेरिदा नहीं किया
है नज़ाकत तेरी, जो, दिल में, उतर जाती है
मेरी, तक़दीर में, लिखा है, राएगाँ होना
पर "आह" जो निकले तिरी, आंखे भर जाती हैं
तू चाहे मुक़र्रर कर, कोई भी ताज़ीर, मुझे
मेरे हम्द में, हर बार तू, सज-संवर जाती है
तुझे अब और जानने की, ख्वाहिश ही नहीं है
भुलाऊं कैसे, इस ख़ौफ़ से, रूह डर जाती है
मेरे जनाजे के सफ़र से, है, क्या फ़रक उसे
जैसे वक़्त गुज़रता है, वो भी, गुज़र जाती है
यूं छोड़ कर उसे, वापस आने से पहले, मैं
खड़ा रहता हूं वहीं, जहां तक, नज़र जाती है
किसी ग़ैर से गुफ़्तगू तिरी, जो देख ले शाकिर
रात की चढ़ी, एक झटके में, उतर जाती है
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बेरिदा = घूंघट के बिना
राएगाँ = बर्बाद
ताज़ीर = सज़ा
हम्द = ख़ुदा की तारीफ
मुकर्रर करना = तय कर देना, सुना देना
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संजीव शाकिर
केनरा बैंक, छपरा
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संजीव शाकिर |
Behtareen
ReplyDeleteShukriya 🙏
Deleteसंजीव शातिर जी,
ReplyDeleteआपका यह नज्म लाजवाब है।
क्षमा प्रार्थी हूँ नाम की गलती के लिए शाकिर भाई।
ReplyDelete😀
Deleteबहुत ही अच्छे अदावत के साथ शायरी हैं। सर।
ReplyDeleteShukriya 🙏
DeleteBhut khub
ReplyDelete🙏
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