जज़्बात
तड़प बेशक उठती है, शाम को, तेरे घर जाने के बाद
अब हाथ हिलाकर क्या होगा, यूं रेल गुजर जाने के बाद
यक़ीनन मेरे सिवा और भी हैं, तुम्हारे चाहने वाले
अंजुमन-ए-आरज़ू है कि, लौट आना, मगर जाने के बाद
क्या कहा, अब नहीं मिलोगे, कोई फर्क नहीं पड़ता तुमको
चल झूठी, आओगी तुम, क़ब्र पर, मेरे मर जाने के बाद
परवाह है, उनकी ही हमें, जो ख़ुद ग़ैरों में मशग़ूल हैं
महफ़िलों में, तन्हा-तन्हा हैं, मुझसे बिछड़कर जाने के बाद
मेरे ख्वाबों की दुनिया न जाने कब उसे झूठी लग गई
ऐतबार होगा, बेशक उन्हें, इनके बिखर जाने के बाद
तय नहीं हो पाता सफ़र, अमूमन, दो पलकों के दरमियान
क्या ख़ाक, मंज़िल मिलेगी अब, पटरी से उतर जाने के बाद
क्यों दिल नहीं लगता, ज़रा भी, तू ज़रा सा, मुंह जो मोड़ ले
दुनियां दफ़न कर चलता बनूं, दिल करे, दफ्तर जाने के बाद
संजीव शाकिर
केनरा बैंक, तेलपा छपरा।।
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संजीव शाकिर |
बहुत बढ़िया👍
ReplyDelete🙏
DeleteWoooo bhaiya ji
ReplyDeleteDhanyabad Bhai
Deleteबहुत बढ़िया भाई 👌👌
ReplyDeleteशुक्रिया भाई
Deleteबहुत अच्छा भाई जी ,,👌👌👌
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