यादें

दो दिन मुद्दतों से लगते हैं, जब भी, तुमसे मुलाकात नहीं होती

वैसे तो, ख़्वाब में गुजरती हो, मगर, वो वाली बात नहीं होती


तबीयत नासाज़ है मेरी क्यों, कब से, तुम कुछ तो हाल-खबर लो

अपनों की परवाह जायज़ है, ये कोई तहक़ीक़ात नहीं होती


मैंने लाख छिपाएं हैं गम अपने, अब ये उनकी ज़िम्मेदारी है

इधर करें करम उधर जता दें, यूं तो कोई ख़ैरात नहीं होती


कितना भी क़हर हो तूफान का, मगर, लहरें बाज कहां आती हैं

शाम के बाद सहर ना हो, ऐसी तो कोई भी रात नहीं होती


काश तेरी तस्वीर मिल जाए, यूं ही कहीं, दर-ओ-दीवार पर मुझे

कम से कम मयस्सर मुझे, फिर, बार-ए-ग़म-ए-हयात नहीं होती


मेरी दारू - तेरी दवा, दोनों में ही दर्द काटने का हुनर है

तिरी फ़रहत है हंसी मेरी, तिरे फतह से मेरी मात नहीं होती


तुम जितने हक से 'ना- ना' कहती हो काश कभी तो 'हां' कह पाती

ताब-ए-दर्द उम्दा है मेरा, मगर, 'आह' कभी सौग़ात नहीं होती


मेरे गांव की मिट्टी से, खुशबू नहीं, अब धूल उड़ा करती है

महज़ तेरे चले जाने से, अब, पहले वाली बरसात नहीं होती


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बार-ए-ग़म-ए-हयात = जिन्दगी में दुखों का भार (Burden of sorrow of life)

फ़रहत = सूकूं (Pleasure, Joy)

ताब-ए-दर्द = दर्द बर्दाश्त करने की क्षमता (Capacity of pain)

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संजीव शाकिर

केनरा बैंक, छपरा

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