दरयाफ़्त

वो खामोश लब से बोलती है, कितना बोलते हो तुम

बिन समझे बिन बूझे मुझे, क्यों, खुद से तोलते हो तुम


करो दरयाफ़्त गर हो सके, रम्ज़-ए-सर-ए-मिज़गाँ का मेरे

क्या बेवजह के मसलों में, मसलन टटोलते हो तुम


तुम्हारी बातें बेहतर है और अच्छी भी लगती है

तीखा पसंद है मुझे, शायद, नमक-मिर्च घोलते हो तुम


बेशक तुम फिकरमंद हो और मेरे लिए मयस्सर भी

परवाह जो कोई गैर करे, फिर क्यों जलते हो तुम


मैं कितनी भी सज-संवर लूं, इस, आईने की सोहबत में

सुकूँ मिले, जब, मिरे दीदार में दरीचे खोलते हो तुम


मेरे हर हर्फ़ में, तुम, अपनी खुशियां ढूंढ लेते हो 

और इक हल्के ज़र्ब से, कैसे , बच्चों सा बिलखते हो तुम


मैं यूं ही नहीं, गहरी नींद की गिरफ्त में रहती हूं

शाम-ओ-सहर मेरे ख्वाब में, क्यों टहलते हो तुम


मेरे मुकद्दर के मुख़्तसर से मुतासिर, तुम हो ना हो

मोम सी पिघलती हूं मैं, जब, आंखें चार करते हो तुम


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दरयाफ़्त= तलाश, खोज़

रम्ज़-ए-सर-ए-मिज़गाँ = पलकों पर छिपे रहस्य 

मसलन = मिसाल के तौर पर

मयस्सर= मौजूद

हर्फ़= शब्द

ज़र्ब= चोट

मुख़्तसर= संक्षिप्त, छोटी कहानी

मुतासिर= प्रभावित

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संजीव शाकिर

केनरा बैंक, छपरा

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