अलविदा
हर बार महज़"अलविदा"कह देना काफी नहीं होता!
गला घोटना पड़ता है उन तमाम यादों का
जो ज़ेहन में ज़न्म ले चुकी होती है।
तुम्हारे यूं जुदा हो जाने से हम तन्हा नहीं हो जाएंगे।
अब जा रहे हो,तो मेरे इन आंखों में बहते'दरिया'को भी ले जाओ।
कहीं इनमें उमड़ता सैलाब,हमारी संजीदगी से संजोयी हुई यादों से तामीर इमारत को ढहा न दे।
हां,दरिया के दो किनारे ही सही,मेरी आंखों की पुतलियां।
मगर इन पर मील के वह दो पत्थर गड़े हैं,
जो सैकड़ों योजन दूर मंजिल को भी सीधे-सीधे ना सही पर टेढ़े-मेढ़े रास्तों से जरूर जोड़ देते हैं।
इन राहों पर बिछी उम्मीद की निगाहें हर वक्त तुम्हारी सलामती में सज़दे करेंगी।
जहां जैसे भी रहो,बस मुस्कुराते रहना।
हसरत,हकीकत ना हुई तो क्या हुआ!
मेरी पलकें अभी भी बंद नहीं हुई हैं।
ये खुली हैं,एक मुकम्मल मुलाकात के इंतजार में।
ये खुली हैं,उन हसीन यादों को तरोताजा करने के लिए जो चौराहे की तीसरी दुकान पर,गर्म चाय के प्याले से होठों के जल जाने के बाद,एक-दूसरे को देख कर मुस्कुराया करते थे।
हां ये अभी भी खुली हैं,इस इंतजार में कि काश वक्त का पहिया एक बार पीछे की तरफ घूम जाता और हम जी लेते उन लम्हों को भी,जो आलस की अंगड़ाईयों में चादरों में लिपटे-लिपटे बेवजह की टालमटोल से,होने वाली मंसूब मुलाकातों को भी अधूरा रहने दिया।
क्या सच में तुम चले जाओगे?
या,यह महज एक इत्तफाक है।
या,यूं कहूं कि बदला,"कायनात"का!
कहते हैं किसी चीज को दिल से चाहो तो सारी कायनात उन खुशियों को आपकी झोली में भरने के लिए लग जाती है।
और यह क्या कायनात!
तुमने तो हमारी झोली ही छीन ली।
आखिर तुमसे क्या देखा ना गया?
हमारे मुस्कुराते चेहरे!
हमारी जिंदगी जीने का अनूठा अंदाज!
या फिर हमारी मसरूफियत,जो सुबह सूरज की शर्माती लालिमा से शुरू होकर चांद की बलखाती चांदनी में भी खत्म होने का नाम ना लेती थी।
तुम तो किस्मत बदलती हो ना,कायनात!
मुझे शिकवा है तुमसे,और रहे भी क्यों ना?
हमारे चमकते चेहरों की दमक तुमसे देखी ना गई।
वो झुर्रियां,जो बढ़ती उम्र की निशानी होती हैं,न जाने कब हमारी मुस्कुराहटों की गर्म चादरों में लिपट कर दम तोड़ चुकी थीं।
वक्त थम सा गया था।
अपनेपन का कोहरा इतना घना था की परेशानियों की परवाह कोसों दूर भी नजरों से नदारद थी।
कायनात! एक बार पलट कर देखो तो सही हमारे मासूम चेहरे को,
अब यहां आंखों से आंसू नहीं खून टपकते हैं।
खैर छोड़ो,
अब किस से,कितना और किस हद तक नाराजगी रखें।
रब दा शुक्र है,मेरे मक़सूम में तुमसे मुलाकात मुकर्रर तो थी।
अब रस्म-ए-उल्फ़त 'ना' निभी,तो 'ना' सही।
हां मगर,
रह-ए-उल्फ़त में खड़ा मैं आज भी,
दरीचों से लेकर दरवाजों तक,
जलते दिए की लौ की तरह इस इंतज़ार में मुसलसल जल रहा हूं,
कि एक दिन तुम उल्टे पांव लौट कर जरूर आओगे।
चिरागों के फड़फड़ाने और रोशनी के खाक़ हो जाने से पहले मुझे अपने वस्ल की आभा में समेट कर ताउम्र के लिए रोशन कर जाओगे।
अब इन ज़िंदा जख्मों से तड़प कर बस करवटें बदल रहा हूं।
चलो आंखें बंद कर लेता हूं इसी बहाने सपनों में तुम साथ तो होगे।
मगर सुनो,अब"अलविदा"ना कहना।
सो जाने दो इस गुमान में कि
ये दोस्ती,यूं ही,ताउम्र बनी रहेगी।
आंखें बंद है,तो क्या हुआ,रहने दो,
तुम जब तलक साथ रहोगे,ये बंद ही रहेंगी।।
संजीव शाकिर
केनरा बैंक, तेलपा छपरा।।
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संजीव शाकिर |
Intensely touching the soul.
ReplyDeleteYea, TruE
DeleteWonderful Shakir Sahab
ReplyDeleteThank U so MucH SiR
DeleteBahut achhi kavita h sanjiv bhai
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद भाई जी
DeleteExtremely heart touching.. very nice sir
ReplyDelete🙏
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