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Showing posts from October, 2020

दरयाफ़्त

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वो खामोश लब से बोलती है, कितना बोलते हो तुम बिन समझे बिन बूझे मुझे, क्यों, खुद से तोलते हो तुम करो दरयाफ़्त गर हो सके, रम्ज़-ए-सर-ए-मिज़गाँ का मेरे क्या बेवजह के मसलों में, मसलन टटोलते हो तुम तुम्हारी बातें बेहतर है और अच्छी भी लगती है तीखा पसंद है मुझे, शायद, नमक-मिर्च घोलते हो तुम बेशक तुम फिकरमंद हो और मेरे लिए मयस्सर भी परवाह जो कोई गैर करे, फिर क्यों जलते हो तुम मैं कितनी भी सज-संवर लूं, इस, आईने की सोहबत में सुकूँ मिले, जब, मिरे दीदार में दरीचे खोलते हो तुम मेरे हर हर्फ़ में, तुम, अपनी खुशियां ढूंढ लेते हो  और इक हल्के ज़र्ब से, कैसे , बच्चों सा बिलखते हो तुम मैं यूं ही नहीं, गहरी नींद की गिरफ्त में रहती हूं शाम-ओ-सहर मेरे ख्वाब में, क्यों टहलते हो तुम मेरे मुकद्दर के मुख़्तसर से मुतासिर, तुम हो ना हो मोम सी पिघलती हूं मैं, जब, आंखें चार करते हो तुम ................................................................................ दरयाफ़्त= तलाश, खोज़ रम्ज़-ए-सर-ए-मिज़गाँ = पलकों पर छिपे रहस्य  मसलन = मिसाल के तौर पर मयस्सर= मौजूद हर्फ़= शब्द ज़र्ब= चोट मुख़्तसर= संक्षिप्त, छोटी कहान

अलविदा

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हर बार महज़" अलविदा "कह देना काफी नहीं होता! गला घोटना पड़ता है उन तमाम यादों का  जो ज़ेहन में ज़न्म ले चुकी होती है। तुम्हारे यूं जुदा हो जाने से हम तन्हा नहीं हो जाएंगे। अब जा रहे हो,तो मेरे इन आंखों में बहते' दरिया 'को भी ले जाओ।  कहीं इनमें उमड़ता सैलाब ,हमारी संजीदगी से संजोयी हुई यादों से तामीर इमारत को ढहा न दे। हां,दरिया के दो किनारे ही सही,मेरी आंखों की पुतलियां । मगर इन पर मील के वह दो पत्थर गड़े हैं, जो सैकड़ों योजन दूर मंजिल को भी सीधे-सीधे ना सही पर टेढ़े-मेढ़े रास्तों से जरूर जोड़ देते हैं। इन राहों पर बिछी उम्मीद की निगाहें हर वक्त तुम्हारी सलामती में सज़दे करेंगी। जहां जैसे भी रहो,बस मुस्कुराते रहना। हसरत,हकीकत  ना हुई तो क्या हुआ! मेरी पलकें अभी भी बंद नहीं हुई हैं। ये खुली हैं,एक मुकम्मल मुलाकात के इंतजार में। ये खुली हैं,उन हसीन यादों को तरोताजा करने के लिए जो चौराहे की तीसरी दुकान पर, गर्म चाय के प्याले से होठों के जल जाने के बाद,एक-दूसरे को देख कर मुस्कुराया करते थे। हां ये अभी भी खुली हैं,इस इंतजार में कि काश वक्त का

अंदाज-ए-गुफ़्तगू

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हेलो, सुनो ज़रा, रुको, यहीं कुछ बात करते हैं पहले तुम मुस्कुराओ, फिर हम शुरुआत करते हैं तेरी पलकों को काली लटों ने घेर रखा है उंगलियों से ही सही, इसे आजाद करते हैं आओ, कुछ दूर, आहिस्ता-आहिस्ता साथ चलें बिन बादल, शहर-ए-दिल में बरसात करते हैं तू मेरा जिगर ना सही, हां मगर, जिगरी तो है रहे आबाद हर पल, यही फरियाद करते हैं वो तुमने उस दिन जो धीरे से "ना" कह दिया बंद आंखों से ही तुझे, अब हम याद करते हैं हवा चले, दिया जले, ये सब मुमकिन नहीं लेकिन कमाल है, यह जादू आप साथ-साथ करते हैं तू मेरे साथ है, अभी तलक, अपने मतलब से महफिल-ए-वफा में लोग, यही बात करते हैं तुम्हें कब फर्क पड़ता है, जिए हम जैसे भी मिल्कियत हो ना हो, दिल से खैरात करते हैं नौकरी-चाकरी सब, फकत जीने का ज़रिया है हो, जो इश्क में मुनाफा, तो मुसावात करते हैं मेरे मसरूफियत को,खैर,तुम क्या जानो'जानी' हाथ उठाकर सज़दे में, मुलाकात करते हैं सुनहरे ख्वाब में, खुली आंखों से खो जाते हो 'शाकिर' कुछ बात है, चलो मालूमात करते हैं संजीव शाकिर केनरा बैंक, तेलपा छपरा।। ......................................................