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Showing posts from August, 2020

अनकही

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वो बढ़ा एक कदम, जैसे हवा की ओर मैं बदहवास दौड़ा, फकत दीयां की ओर मिन्नत ही ना की, अमीर-ए-शहर ने कभी अब नज़रें ताकती है, बस खुदा की ओर वहां चांद नम है, यहां तपती है जमीं मुसावात तो कर, ऐ अब्र धरा की ओर लहू टपकता है, दरख़्त के पत्तों से अब बहता था सुकूं जिनसे, पुरवा की ओर वो ठहरा ही कब, कि मैं ठहर जाता बस चलता रहा, आब-ए-रवाँ की ओर है खबर मुझे, मैं उनकी नज़र नहीं है खुशी मुझे, हैं वो रहनुमां की ओर वो पास बैठे मेरे,  बड़े तबस्सुम से फिर चल दिए, अपने हमनवां की ओर ना मैं हबीब हूं, ना हूं रकीब उनका हैं वो मुतमइन कि, हूं मैं शमा की ओर झील सी आंखों से, मोती टपक पड़े ढक के पल्लू में मां, मुड़ी धुआं की ओर इक फूंक से दहका दिया, बुझती आग को जैसे रुद्रकाली हो खड़ी, खुद मां की ओर मां की हतपोइया, जो चूल्हे में पकी वो सोंहापन कहां, गैस तवा की ओर मेले की चहलकदमी, भीड़ का हो हल्ला बनने को खड़े, बाबा के बटुआ की ओर .................................................✍️ बदहवास = बौखलाकर अमीर-ए-शहर = शोहरत मंद लोग मुसावात = बराबरी, समानता, न्याय अब्र = बादल दरख़्त = पेड़ पुरवा = गांव आब-ए-रवां = बहता पानी तबस्स

हरगिज़ नहीं

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खुशबू भरे खत तिरे जला दूं , हरगिज़ नहीं जीते जी दिल में दफना दूं , हरगिज़ नहीं तुममें इश्क की चिंगारी जले ना जले मैं दहकती आग बुझा दूं , हरगिज़ नहीं थपथपा कर सुलाया है दिल में यादों को उन्हें इक झटके में जगा दूं , हरगिज़ नहीं साहिल पर तामीर हुआ जो रेत का मकां बेवफा लहरों में बहा दूं , हरगिज़ नहीं पल-पल में जिया संग जिंदगी जो तेरे उन हसीं लम्हों को भुला दूं , हरगिज़ नहीं तेरे हिज्र से गम-ए-दिल आबाद रहे तेरी वस्ल का मरहम लगा दूं , हरगिज़ नहीं बेपनाह इश्क है तुमसे तुम दिल में रहो नुमाइश में डीपी बना दूं , हरगिज़ नहीं तिरे हंसी लव का मायल भी हूं मुरीद भी ये राज दुनिया को बता दूं , हरगिज़ नहीं इक अरसे बाद लौटी है अटारी पर जो चहकती चिड़ियों को उड़ा दूं , हरगिज़ नहीं यूं बांटते फिरते हैं दुनिया भर को मगर तेरी खीर किसी को खिला दूं , हरगिज़ नहीं तुझे पाने का खुमार बेशक है मुझ में इस जुनूं में खुद को लुटा दूं , हरगिज़ नहीं संजीव शाकिर केनरा बैंक, तेलपा छपरा sanjeevshaakir.blogspot.com संजीव शाकिर

खुन्नस

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उसने कह दिया अलविदा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। रहते है अब जुदा-जुदा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। वो आए ही ना नजर हमें। धुंध, छट जाने पर भी।। मर्जी उनकी, उनकी अदा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। यूं तो नजरें चार करती। वो खुद, दरीचों से।। जो हूं मुखातिब, तो हो खफा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। हां दीवाना हूं, मैं उनके। मुख्तलिफ आंदाज का।। और वो फकत करते जफा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। भूल नजरों का था शायद। वो नियत समझ बैठे।। कहा ना, इक भी दफा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। बुलाकर धड़कनों को, यूं हीं। उसने दिल दरवाजे पर।। कर दिया सब रफा-दफा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। बदन के एक खरोच पर। जो हाथ सजदे में रहते थे।। अब कैसा हाकिम, कैसा खुदा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। वहां चांद-तारे तोड़े। यहां जमीं जुगनू करने को।। जलाकर बुझा दिया, दियां। न जाने, कैसी खुन्नस है।। दिल के बेहद करीब थे। अक्सर ख्वाब में मिलते थे।। वो गुमनाम, हैं गुमशुदा। न जाने, कैसी खुन्नस है।। .........................✍️ ...............................✍️ संजीव शाकिर केनरा बैंक, तेलपा छपरा। संजीव शाकिर